बुधवार, 30 दिसंबर 2015

हनुमान बाहुक

ॐ श्रीगणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते।
श्रीमद्तुलसीदासकृत​


छप्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥
झूलना
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन
अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन
क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि
 लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै
 तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज
 गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर
 बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि
 फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं
 हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥

गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक
 निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर
 कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज
 काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह
 लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो
 नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो
 महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को
 तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान
 सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥
दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू
 अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन दुरित दोष दमन
 सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो
 प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान
 साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥

दवन दुवन दल भुवन बिदित बल
 बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु
 सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक
 तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास
 नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥

महाबल सीम महा भीम महाबान इत
 महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन
 करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को
 सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को
 सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर
 मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को
 सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥
खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को
 माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर
 तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि
 सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ
 बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद
 ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि
 जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि
 लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि
 तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब
 कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को
 जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ
 महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम
 लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील
 लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार
 तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥

मन को अगम तन सुगम किये कपीस
 काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर
 जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर
 सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं
 जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥
सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥

तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥

सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥
तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥

अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।
पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥

घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन
 मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी
 साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति
 मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के
 बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥

बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो
 दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल
 आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो
 माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर
 बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार
 केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।
राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत
 मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर
 सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर
 मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय
 राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे
 जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें
 सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न
 लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥
लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत
 तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल
 नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर
 तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि
उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे
बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि
 बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख
 पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की
बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥

भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है
बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की
 पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि
 बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की
सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल
 लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार
जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी
रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर
कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर
भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब
 तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि
 हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है
एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥

टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि
 बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर
आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु
 कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास
 चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें
 बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये
 बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल
को है जगजाल जो न मानत इताति है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत
ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को
 समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत
 रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज
 सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग
 छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग
राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग
 हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को
 सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों
तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज
 सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत
 सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ
 देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न
कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष
 पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥
अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न
 बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि
 तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस
 रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान
हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि
 केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥

सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥

घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधौ
पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन
सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि
 सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान
जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर
जर जर सकल पीर मई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें
 ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि
 हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥

बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि
 मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ
 जिनके समूह साके जागत जहान है ।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट
बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो
 राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय
 मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो
अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥

असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन
 देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो
दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो
 बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस
 फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥

जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन
 मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।
तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ
 जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब
 मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित
 हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय
 तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की
समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ
रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों
 कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई
 बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के
 करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं
हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥
॥इति॥

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें