गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

श्रीसरस्वती कवच (Shri Sarswati kavach)

श्रीब्रह्मवैवर्त-पुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय ४ में मुनिवर भगवान नारायण ने मुनिवर नारदजी को बतलाया कि ‘विप्रेन्द्र! श्रीसरस्वती कवच विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे इन्हें बताया था।

॥ब्रह्मोवाच॥
श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्। 
श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्॥
उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वमे। 
रासेश्वरेण विभुना वै रासमण्डले॥
अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्। 
अश्रुताद्भुतमन्त्राणां समूहैश्च समन्वितम्॥
यद धृत्वा भगवाञ्छुक्रः सर्वदैत्येषु पूजितः। 
यद धृत्वा पठनाद ब्रह्मन बुद्धिमांश्च बृहस्पति॥
पठणाद्धारणाद्वाग्मी कवीन्द्रो वाल्मिको मुनिः। 
स्वायम्भुवो मनुश्चैव यद धृत्वा सर्वपूजितः॥
कणादो गौतमः कण्वः पाणिनीः शाकटायनः। 
ग्रन्थं चकार यद धृत्वा दक्षः कात्यायनः स्वयम्॥
धृत्वा वेदविभागं च पुराणान्यखिलानि च। 
चकार लीलामात्रेण कृष्णद्वैपायनः स्वयम्॥
शातातपश्च संवर्तो वसिष्ठश्च पराशरः। 
यद धृत्वा पठनाद ग्रन्थं याज्ञवल्क्यश्चकार सः॥
ऋष्यश्रृंगो भरद्वाजश्चास्तीको देवलस्तथा। 
जैगीषव्योऽथ जाबालिर्यद धृत्वा सर्वपूजिताः॥

कचवस्यास्य विप्रेन्द्र ऋषिरेष प्रजापतिः। 
स्वयं च बृहतीच्छन्दो देवता शारदाम्बिका॥१

सर्वतत्त्वपरिज्ञाने सर्वार्थसाधनेषु च। 
कवितासु च सर्वासु विनियोगः प्रकीर्तितः॥२

श्रीं ह्रीं सरस्वत्यै स्वाहा शिरो मे पातु सर्वतः। 
श्रीं वाग्देवतायै स्वाहा भालं मे सर्वदावतु॥३

ॐ सरस्वत्यै स्वाहेति श्रोत्रे पातु निरन्तरम्। 
ॐ श्रीं ह्रीं भारत्यै स्वाहा नेत्रयुग्मं सदावतु॥४

ऐं ह्रीं वाग्वादिन्यै स्वाहा नासां मे सर्वतोऽवतु। 
ॐ ह्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ओष्ठं सदावतु॥५

ॐ श्रीं ह्रीं ब्राह्मयै स्वाहेति दन्तपङ्क्तीः सदावतु। 
ऐमित्येकाक्षरो मन्त्रो मम कण्ठं सदावतु॥६

ॐ श्रीं ह्रीं पातु मे ग्रीवां स्कन्धौ मे श्रीं सदावतु। 
ॐ श्रीं विद्याधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा वक्षः सदावतु॥७

ॐ ह्रीं विद्यास्वरुपायै स्वाहा मे पातु नाभिकाम्। 
ॐ ह्रीं ह्रीं वाण्यै स्वाहेति मम हस्तौ सदावतु॥८

ॐ सर्ववर्णात्मिकायै पादयुग्मं सदावतु। 
ॐ वागधिष्ठातृदेव्यै सर्व सदावतु॥९

ॐ सर्वकण्ठवासिन्यै स्वाहा प्राच्यां सदावतु। 
ॐ ह्रीं जिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहाग्निदिशि रक्षतु॥१०

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सरस्वत्यै बुधजनन्यै स्वाहा। 
सततं मन्त्रराजोऽयं दक्षिणे मां सदावतु॥११

ऐं ह्रीं श्रीं त्र्यक्षरो मन्त्रो नैरृत्यां मे सदावतु। 
कविजिह्वाग्रवासिन्यै स्वाहा मां वारुणेऽवतु॥१२

ॐ सर्वाम्बिकायै स्वाहा वायव्ये मां सदावतु। 
ॐ ऐं श्रीं गद्यपद्यवासिन्यै स्वाहा मामुत्तरेऽवतु॥१३

ऐं सर्वशास्त्रवासिन्यै स्वाहैशान्यां सदावतु। 
ॐ ह्रीं सर्वपूजितायै स्वाहा चोर्ध्वं सदावतु॥१४

ऐं ह्रीं पुस्तकवासिन्यै स्वाहाधो मां सदावतु। 
ॐ ग्रन्थबीजरुपायै स्वाहा मां सर्वतोऽवतु॥१५

इति ते कथितं विप्र ब्रह्ममन्त्रौघविग्रहम्। 
इदं विश्वजयं नाम कवचं ब्रह्मरुपकम्॥
पुरा श्रुतं धर्मवक्त्रात पर्वते गन्धमादने। 
तव स्नेहान्मयाऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्॥
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद वस्त्रालंकारचन्दनैः। 
प्रणम्य दण्डवद भूमौ कवचं धारयेत सुधीः॥
पञ्चलक्षजपैनैव सिद्धं तु कवचं भवेत्। 
यदि स्यात सिद्धकवचो बृहस्पतिसमो भवेत्॥
महावाग्मी कवीन्द्रश्च त्रैलोक्यविजयी भवेत्। 
शक्नोति सर्वे जेतुं स कवचस्य प्रसादतः॥
इदं ते काण्वशाखोक्तं कथितं कवचं मुने। 
स्तोत्रं पूजाविधानं च ध्यानं वै वन्दनं तथा॥
॥इति श्रीब्रह्मवैवर्ते ध्यानमन्त्रसहितं विश्वविजय-सरस्वतीकवचं सम्पूर्णम्॥
(प्रकृतिखण्ड ४।६३-९१)

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

श्रीसत्यनारायणजी की आरती


ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी जय लक्ष्मीरमणा |

सत्यनारायण स्वामी, जन पातक हरणा ॥


रत्नजडित सिंहासन, अद्भुत छवि राजें |

नारद करत निरतंर घंटा ध्वनी बाजें ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी....


प्रकट भयें कलिकारण ,द्विज को दरस दियो |

बूढों ब्राम्हण बनके ,कंचन महल कियों ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


दुर्बल भील कठार, जिन पर कृपा करी |

च्रंदचूड एक राजा तिनकी विपत्ति हरी ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


वैश्य मनोरथ पायों ,श्रद्धा तज दिन्ही |

सो फल भोग्यों प्रभूजी , फेर स्तुति किन्ही ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


भाव भक्ति के कारन .छिन छिन रुप धरें |

श्रद्धा धारण किन्ही ,तिनके काज सरें ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


ग्वाल बाल संग राजा ,वन में भक्ति करि |

मनवांचित फल दिन्हो ,दीन दयालु हरि ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


चढत प्रसाद सवायों ,दली फल मेवा |

धूप दीप तुलसी से राजी सत्य देवा ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


सत्यनारायणजी की आरती जो कोई नर गावे |

ऋद्धि सिद्धी सुख संपत्ति सहज रुप पावे ॥
ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी.....


ॐ जय लक्ष्मीरमणा स्वामी जय लक्ष्मीरमणा|

सत्यनारायण स्वामी ,जन पातक हरणा ॥

हनुमानजी की आरती (Shri Hanuman Ji Ki Aarti)


मनोजवं मारुत तुल्यवेगं, जितेन्द्रियं,बुद्धिमतां वरिष्ठम् ||
वातात्मजं वानरयुथ मुख्यं, श्रीरामदुतं शरणम प्रपद्धे ||

आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥
जाके बल से गिरवर काँपे | रोग दोष जाके निकट ना झाँके ॥


अंजनी पुत्र महा बलदाई | संतन के प्रभु सदा सहाई ॥
दे वीरा रघुनाथ पठाये | लंका जाये सिया सुधी लाये ॥


लंका सी कोट संमदर सी खाई | जात पवनसुत बार न लाई ॥
लंका जारि असुर संहारे | सियाराम जी के काज सँवारे ॥


लक्ष्मण मुर्छित पडे सकारे | आनि संजिवन प्राण उबारे ॥
पैठि पताल तोरि जम कारे| अहिरावन की भुजा उखारे ॥


बायें भुजा असुर दल मारे | दाहीने भुजा सब संत जन उबारे ॥
सुर नर मुनि जन आरती उतारे | जै जै जै हनुमान उचारे ॥


कचंन थाल कपूर लौ छाई | आरती करत अंजनी माई ॥
जो हनुमान जी की आरती गाये | बसहिं बैकुंठ परम पद पायै ॥


लंका विध्वंश किये रघुराई | तुलसीदास स्वामी किर्ती गाई ॥
आरती किजे हनुमान लला की | दुष्ट दलन रघुनाथ कला की ॥

हनुमान बाहुक

ॐ श्रीगणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते।
श्रीमद्तुलसीदासकृत​


छप्पय
सिंधु तरन, सिय-सोच हरन, रबि बाल बरन तनु ।
भुज बिसाल, मूरति कराल कालहु को काल जनु ॥
गहन-दहन-निरदहन लंक निःसंक, बंक-भुव ।
जातुधान-बलवान मान-मद-दवन पवनसुव ॥
कह तुलसिदास सेवत सुलभ सेवक हित सन्तत निकट ।
गुन गनत, नमत, सुमिरत जपत समन सकल-संकट-विकट ॥१॥

स्वर्न-सैल-संकास कोटि-रवि तरुन तेज घन ।
उर विसाल भुज दण्ड चण्ड नख-वज्रतन ॥
पिंग नयन, भृकुटी कराल रसना दसनानन ।
कपिस केस करकस लंगूर, खल-दल-बल-भानन ॥
कह तुलसिदास बस जासु उर मारुतसुत मूरति विकट ।
संताप पाप तेहि पुरुष पहि सपनेहुँ नहिं आवत निकट ॥२॥
झूलना
पञ्चमुख-छःमुख भृगु मुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ सूरो।
बांकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैजपूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासुबल, बिपुल जल भरित जग जलधि झूरो।
दुवन दल दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रुरो ॥३॥
घनाक्षरी
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानुमन
अनुमानि सिसु केलि कियो फेर फारसो ।
पाछिले पगनि गम गगन मगन मन
क्रम को न भ्रम कपि बालक बिहार सो ॥
कौतुक बिलोकि लोकपाल हरिहर विधि
 लोचननि चकाचौंधी चित्तनि खबार सो।
बल कैंधो बीर रस धीरज कै, साहस कै
 तुलसी सरीर धरे सबनि सार सो ॥४॥

भारत में पारथ के रथ केथू कपिराज
 गाज्यो सुनि कुरुराज दल हल बल भो ।
कह्यो द्रोन भीषम समीर सुत महाबीर
 बीर-रस-बारि-निधि जाको बल जल भो ॥
बानर सुभाय बाल केलि भूमि भानु लागि
 फलँग फलाँग हूतें घाटि नभ तल भो ।
नाई-नाई-माथ जोरि-जोरि हाथ जोधा जो हैं
 हनुमान देखे जगजीवन को फल भो ॥५॥

गो-पद पयोधि करि, होलिका ज्यों लाई लंक
 निपट निःसंक पर पुर गल बल भो ।
द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर
 कंदुक ज्यों कपि खेल बेल कैसो फल भो ॥
संकट समाज असमंजस भो राम राज
 काज जुग पूगनि को करतल पल भो ।
साहसी समत्थ तुलसी को नाई जा की बाँह
 लोक पाल पालन को फिर थिर थल भो ॥६॥

कमठ की पीठि जाके गोडनि की गाड़ैं मानो
 नाप के भाजन भरि जल निधि जल भो ।
जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो
 महा मीन बास तिमि तोमनि को थल भो ॥
कुम्भकरन रावन पयोद नाद ईधन को
 तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो ।
भीषम कहत मेरे अनुमान हनुमान
 सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो ॥७॥
दूत राम राय को सपूत पूत पौनको तू
 अंजनी को नन्दन प्रताप भूरि भानु सो ।
सीय-सोच-समन दुरित दोष दमन
 सरन आये अवन लखन प्रिय प्राण सो ॥
दसमुख दुसह दरिद्र दरिबे को भयो
 प्रकट तिलोक ओक तुलसी निधान सो ।
ज्ञान गुनवान बलवान सेवा सावधान
 साहेब सुजान उर आनु हनुमान सो ॥८॥

दवन दुवन दल भुवन बिदित बल
 बेद जस गावत बिबुध बंदी छोर को ।
पाप ताप तिमिर तुहिन निघटन पटु
 सेवक सरोरुह सुखद भानु भोर को ॥
लोक परलोक तें बिसोक सपने न सोक
 तुलसी के हिये है भरोसो एक ओर को ।
राम को दुलारो दास बामदेव को निवास
 नाम कलि कामतरु केसरी किसोर को ॥९॥

महाबल सीम महा भीम महाबान इत
 महाबीर बिदित बरायो रघुबीर को ।
कुलिस कठोर तनु जोर परै रोर रन
 करुना कलित मन धारमिक धीर को ॥
दुर्जन को कालसो कराल पाल सज्जन को
 सुमिरे हरन हार तुलसी की पीर को ।
सीय-सुख-दायक दुलारो रघुनायक को
 सेवक सहायक है साहसी समीर को ॥१०॥

रचिबे को बिधि जैसे, पालिबे को हरि हर
 मीच मारिबे को, ज्याईबे को सुधापान भो ।
धरिबे को धरनि, तरनि तम दलिबे को
 सोखिबे कृसानु पोषिबे को हिम भानु भो ॥
खल दुःख दोषिबे को, जन परितोषिबे को
 माँगिबो मलीनता को मोदक दुदान भो ।
आरत की आरति निवारिबे को तिहुँ पुर
 तुलसी को साहेब हठीलो हनुमान भो ॥११॥

सेवक स्योकाई जानि जानकीस मानै कानि
 सानुकूल सूलपानि नवै नाथ नाँक को ।
देवी देव दानव दयावने ह्वै जोरैं हाथ
 बापुरे बराक कहा और राजा राँक को ॥
जागत सोवत बैठे बागत बिनोद मोद
 ताके जो अनर्थ सो समर्थ एक आँक को ।
सब दिन रुरो परै पूरो जहाँ तहाँ ताहि
 जाके है भरोसो हिये हनुमान हाँक को ॥१२॥

सानुग सगौरि सानुकूल सूलपानि ताहि
 लोकपाल सकल लखन राम जानकी ।
लोक परलोक को बिसोक सो तिलोक ताहि
 तुलसी तमाइ कहा काहू बीर आनकी ॥
केसरी किसोर बन्दीछोर के नेवाजे सब
 कीरति बिमल कपि करुनानिधान की ।
बालक ज्यों पालि हैं कृपालु मुनि सिद्धता को
 जाके हिये हुलसति हाँक हनुमान की ॥१३॥

करुनानिधान बलबुद्धि के निधान हौ
 महिमा निधान गुनज्ञान के निधान हौ ।
बाम देव रुप भूप राम के सनेही, नाम
 लेत देत अर्थ धर्म काम निरबान हौ ॥
आपने प्रभाव सीताराम के सुभाव सील
 लोक बेद बिधि के बिदूष हनुमान हौ ।
मन की बचन की करम की तिहूँ प्रकार
 तुलसी तिहारो तुम साहेब सुजान हौ ॥१४॥

मन को अगम तन सुगम किये कपीस
 काज महाराज के समाज साज साजे हैं ।
देवबंदी छोर रनरोर केसरी किसोर
 जुग जुग जग तेरे बिरद बिराजे हैं ।
बीर बरजोर घटि जोर तुलसी की ओर
 सुनि सकुचाने साधु खल गन गाजे हैं ।
बिगरी सँवार अंजनी कुमार कीजे मोहिं
 जैसे होत आये हनुमान के निवाजे हैं ॥१५॥
सवैया
जान सिरोमनि हो हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो ।
ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो ॥
साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहां तुलसी को न चारो ।
दोष सुनाये तैं आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तो हिय हारो ॥१६॥

तेरे थपै उथपै न महेस, थपै थिर को कपि जे उर घाले ।
तेरे निबाजे गरीब निबाज बिराजत बैरिन के उर साले ॥
संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले ।
बूढ भये बलि मेरिहिं बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले ॥१७॥

सिंधु तरे बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवासे ।
तैं रनि केहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवासे ॥
तोसो समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से ।
बानरबाज ! बढ़े खल खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवासे ॥१८॥

अच्छ विमर्दन कानन भानि दसानन आनन भा न निहारो ।
बारिदनाद अकंपन कुंभकरन से कुञ्जर केहरि वारो ॥
राम प्रताप हुतासन, कच्छ, विपच्छ, समीर समीर दुलारो ।
पाप ते साप ते ताप तिहूँ तें सदा तुलसी कह सो रखवारो ॥१९॥

घनाक्षरी
जानत जहान हनुमान को निवाज्यो जन
 मन अनुमानि बलि बोल न बिसारिये ।
सेवा जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी
 साहेब सुभाव कपि साहिबी संभारिये ॥
अपराधी जानि कीजै सासति सहस भान्ति
 मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये ।
साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के
 बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये ॥२०॥

बालक बिलोकि, बलि बारें तें आपनो कियो
 दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपाधि न्यारिये ।
रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल
 आस रावरीयै दास रावरो विचारिये ॥
बड़ो बिकराल कलि काको न बिहाल कियो
 माथे पगु बलि को निहारि सो निबारिये ।
केसरी किसोर रनरोर बरजोर बीर
 बाँह पीर राहु मातु ज्यौं पछारि मारिये ॥२१॥

उथपे थपनथिर थपे उथपनहार
 केसरी कुमार बल आपनो संबारिये ।
राम के गुलामनि को काम तरु रामदूत
 मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ॥
साहेब समर्थ तो सों तुलसी के माथे पर
 सोऊ अपराध बिनु बीर, बाँधि मारिये ।
पोखरी बिसाल बाँहु, बलि, बारिचर पीर
 मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये ॥२२॥

राम को सनेह, राम साहस लखन सिय
 राम की भगति, सोच संकट निवारिये ।
मुद मरकट रोग बारिनिधि हेरि हारे
 जीव जामवंत को भरोसो तेरो भारिये ॥
कूदिये कृपाल तुलसी सुप्रेम पब्बयतें
 सुथल सुबेल भालू बैठि कै विचारिये ।
महाबीर बाँकुरे बराकी बाँह पीर क्यों न
 लंकिनी ज्यों लात घात ही मरोरि मारिये ॥२३॥
लोक परलोकहुँ तिलोक न विलोकियत
 तोसे समरथ चष चारिहूँ निहारिये ।
कर्म, काल, लोकपाल, अग जग जीवजाल
 नाथ हाथ सब निज महिमा बिचारिये ॥
खास दास रावरो, निवास तेरो तासु उर
 तुलसी सो, देव दुखी देखिअत भारिये ।
बात तरुमूल बाँहूसूल कपिकच्छु बेलि
उपजी सकेलि कपि केलि ही उखारिये ॥२४॥

करम कराल कंस भूमिपाल के भरोसे
बकी बक भगिनी काहू तें कहा डरैगी ।
बड़ी बिकराल बाल घातिनी न जात कहि
 बाँहू बल बालक छबीले छोटे छरैगी ॥
आई है बनाई बेष आप ही बिचारि देख
 पाप जाय सब को गुनी के पाले परैगी ।
पूतना पिसाचिनी ज्यौं कपि कान्ह तुलसी की
बाँह पीर महाबीर तेरे मारे मरैगी ॥२५॥

भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है
बेदन बिषम पाप ताप छल छाँह की ।
करमन कूट की कि जन्त्र मन्त्र बूट की
 पराहि जाहि पापिनी मलीन मन माँह की ॥
पैहहि सजाय, नत कहत बजाय तोहि
 बाबरी न होहि बानि जानि कपि नाँह की ।
आन हनुमान की दुहाई बलवान की
सपथ महाबीर की जो रहै पीर बाँह की ॥२६॥

सिंहिका सँहारि बल सुरसा सुधारि छल
 लंकिनी पछारि मारि बाटिका उजारी है ।
लंक परजारि मकरी बिदारि बार बार
जातुधान धारि धूरि धानी करि डारी है ॥
तोरि जमकातरि मंदोदरी कठोरि आनी
रावन की रानी मेघनाद महतारी है ।
भीर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर
कौन के सकोच तुलसी के सोच भारी है ॥२७॥

तेरो बालि केलि बीर सुनि सहमत धीर
भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की ।
तेरी बाँह बसत बिसोक लोक पाल सब
 तेरो नाम लेत रहैं आरति न काहु की ॥
साम दाम भेद विधि बेदहू लबेद सिधि
 हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की ।
आलस अनख परिहास कै सिखावन है
एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की ॥२८॥

टूकनि को घर घर डोलत कँगाल बोलि
 बाल ज्यों कृपाल नत पाल पालि पोसो है ।
कीन्ही है सँभार सार अँजनी कुमार बीर
आपनो बिसारि हैं न मेरेहू भरोसो है ॥
इतनो परेखो सब भान्ति समरथ आजु
 कपिराज सांची कहौं को तिलोक तोसो है ।
सासति सहत दास कीजे पेखि परिहास
 चीरी को मरन खेल बालकनि कोसो है ॥२९॥

आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें
 बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये
 बादि भये देवता मनाये अधीकाति है ॥
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल
को है जगजाल जो न मानत इताति है ।
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत
ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ॥३०॥

दूत राम राय को, सपूत पूत वाय को
 समत्व हाथ पाय को सहाय असहाय को ।
बाँकी बिरदावली बिदित बेद गाइयत
 रावन सो भट भयो मुठिका के धाय को ॥
एते बडे साहेब समर्थ को निवाजो आज
 सीदत सुसेवक बचन मन काय को ।
थोरी बाँह पीर की बड़ी गलानि तुलसी को
कौन पाप कोप, लोप प्रकट प्रभाय को ॥३१॥

देवी देव दनुज मनुज मुनि सिद्ध नाग
 छोटे बड़े जीव जेते चेतन अचेत हैं ।
पूतना पिसाची जातुधानी जातुधान बाग
राम दूत की रजाई माथे मानि लेत हैं ॥
घोर जन्त्र मन्त्र कूट कपट कुरोग जोग
 हनुमान आन सुनि छाड़त निकेत हैं ।
क्रोध कीजे कर्म को प्रबोध कीजे तुलसी को
 सोध कीजे तिनको जो दोष दुख देत हैं ॥३२॥

तेरे बल बानर जिताये रन रावन सों
तेरे घाले जातुधान भये घर घर के ।
तेरे बल राम राज किये सब सुर काज
 सकल समाज साज साजे रघुबर के ॥
तेरो गुनगान सुनि गीरबान पुलकत
 सजल बिलोचन बिरंचि हरिहर के ।
तुलसी के माथे पर हाथ फेरो कीस नाथ
 देखिये न दास दुखी तोसो कनिगर के ॥३३॥

पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न
कूर कौड़ी दूको हौं आपनी ओर हेरिये ।
भोरानाथ भोरे ही सरोष होत थोरे दोष
 पोषि तोषि थापि आपनो न अव डेरिये ॥
अँबु तू हौं अँबु चूर, अँबु तू हौं डिंभ सो न
 बूझिये बिलंब अवलंब मेरे तेरिये ।
बालक बिकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि
 तुलसी की बाँह पर लामी लूम फेरिये ॥३४॥

घेरि लियो रोगनि, कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं
बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस
 रोष बिनु दोष धूम मूल मलिनाई है ॥
करुनानिधान हनुमान महा बलवान
हेरि हँसि हाँकि फूंकि फौंजै ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि
 केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है ॥३५॥

सवैया
राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ॥
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ॥३६॥

घनाक्षरी
काल की करालता करम कठिनाई कीधौ
पाप के प्रभाव की सुभाय बाय बावरे ।
बेदन कुभाँति सो सही न जाति राति दिन
सोई बाँह गही जो गही समीर डाबरे ॥
लायो तरु तुलसी तिहारो सो निहारि बारि
 सींचिये मलीन भो तयो है तिहुँ तावरे ।
भूतनि की आपनी पराये की कृपा निधान
जानियत सबही की रीति राम रावरे ॥३७॥

पाँय पीर पेट पीर बाँह पीर मुंह पीर
जर जर सकल पीर मई है ।
देव भूत पितर करम खल काल ग्रह
मोहि पर दवरि दमानक सी दई है ॥
हौं तो बिनु मोल के बिकानो बलि बारे हीतें
 ओट राम नाम की ललाट लिखि लई है ।
कुँभज के किंकर बिकल बूढ़े गोखुरनि
 हाय राम राय ऐसी हाल कहूँ भई है ॥३८॥

बाहुक सुबाहु नीच लीचर मरीच मिलि
 मुँह पीर केतुजा कुरोग जातुधान है ।
राम नाम जप जाग कियो चहों सानुराग
काल कैसे दूत भूत कहा मेरे मान है ॥
सुमिरे सहाय राम लखन आखर दौऊ
 जिनके समूह साके जागत जहान है ।
तुलसी सँभारि ताडका सँहारि भारि भट
बेधे बरगद से बनाई बानवान है ॥३९॥

बालपने सूधे मन राम सनमुख भयो
 राम नाम लेत माँगि खात टूक टाक हौं ।
परयो लोक रीति में पुनीत प्रीति राम राय
 मोह बस बैठो तोरि तरकि तराक हौं ॥
खोटे खोटे आचरन आचरत अपनायो
अंजनी कुमार सोध्यो रामपानि पाक हौं ।
तुलसी गुसाँई भयो भोंडे दिन भूल गयो
ताको फल पावत निदान परिपाक हौं ॥४०॥

असन बसन हीन बिषम बिषाद लीन
 देखि दीन दूबरो करै न हाय हाय को ।
तुलसी अनाथ सो सनाथ रघुनाथ कियो
दियो फल सील सिंधु आपने सुभाय को ॥
नीच यहि बीच पति पाइ भरु हाईगो
 बिहाइ प्रभु भजन बचन मन काय को ।
ता तें तनु पेषियत घोर बरतोर मिस
 फूटि फूटि निकसत लोन राम राय को ॥४१॥

जीओ जग जानकी जीवन को कहाइ जन
 मरिबे को बारानसी बारि सुर सरि को ।
तुलसी के दोहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँऊ
 जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को ॥
मो को झूँटो साँचो लोग राम कौ कहत सब
 मेरे मन मान है न हर को न हरि को ।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत
सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को ॥४२॥

सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित
 हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै ।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय
 तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै ॥
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की
समाधि की जै तुलसी को जानि जन फुर कै ।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ
रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै ॥४३॥

कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों
 कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई
 बिरची बिरञ्ची सब देखियत दुनिये ॥
माया जीव काल के करम के सुभाय के
 करैया राम बेद कहें साँची मन गुनिये ।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहिं
हौं हूँ रहों मौनही वयो सो जानि लुनिये ॥४४॥
॥इति॥

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

गायत्रीहृदयम

॥ अथ श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे गायत्रीहृदयम ॥

॥ नारद उवाच ॥
भगवन्देवदेवेश भूतभव्य जगत्प्रभो ।
कवचं च शृतं दिव्यं गायत्रीमन्त्रविग्रहम ॥१॥
अधुना श्रोतुमिच्छामि गायत्रीहृदयं परम ।
यद्धारणाद्भवेत्पुण्यं गायत्रीजपतोऽखिलम ॥२॥

॥ श्रीनारायण उवाच ॥
देव्याश्च हृदयं प्रोक्तं नारदाथर्वणे स्फुटम ।
तदेवाहं प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम ॥३॥
विराड्रूपां महादेवीं गायत्रीं वेदमातरम ।
ध्यात्वा तस्यास्त्वथाङ्गेषु ध्यायेदेताश्च देवताः ॥४॥

पिण्डब्रह्मण्दयोरैक्याद्भावयेत्स्वतनौ तथा ।
देवीरूपे निजे देहे तन्मयत्वाय साधकः ॥ ५॥
नादेवोऽभ्यर्चयेद्देवमिति वेदविदो विदुः ।
ततोऽभेदाय काये स्वे भावयेद्देवता इमाः ॥ ६॥

अथ तत्सम्प्रवक्ष्यामि तन्मयत्वमयो भवेत ।
गायत्रीहृदयस्यास्याप्यहमेव ऋषिः स्मृतः ॥ ७॥
गायत्रीछन्द उद्दिष्टं देवता परमेश्वरी ।
पूर्वोक्तेन प्रकारेण कुर्यादङ्गानि षट क्रमात ।
आसने विजने देशे ध्यायेदेकाग्रमानसः ॥ ८॥

 ॥ अथार्थन्यासः ॥ 
द्यौमूर्ध्नि दैवतम ॥ दन्तपङ्क्तावश् विनौ ॥ उभे सन्ध्ये चौष्ठौ ॥ मुखमग्निः ॥ जिह्वा सरस्वती ॥ ग्रीवायां तु बृहस्पतिः ॥स्तनयोर्वसवोऽष्टौ ॥ बाह्वोर्मरुतः ॥ हृदये पर्जन्यः ॥आकाशमुदरम ॥ नाभावन्तरिक्षम ॥ कट्योरिन्द्राग्नी ॥ जघने विज्ञानघनः प्रजापतिः ॥ कैलासमलये ऊरू ॥ विश्वेदेवा जान्वोः ॥ जङ्घायां कौशिकः ॥ गुह्यमयने ॥ ऊरू पितरः ॥ पादौ पृथिवी ॥ वनस्पतयोङ्गुलीषु ॥ऋषयो रोमाणि ॥ नखानि मुहूर्तानि ॥ अस्थिषु ग्रहाः ॥ असृङ्मांसमृतवः ॥ संवत्सरा वै निमिषम ॥ अहोरात्रावादित यश्चन्द्रमाः ॥ प्रवरं दिव्यां गायत्रीं सहस्रनेत्रां शरणमहं प्रपद्ये ॥ ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः ॥ ॐ तत्पूर्वाजयाय नमः ॥ तत्प्रातरादित्याय नमः ॥ तत्प्रातरादित्य प्रतिष्ठायै नमः ॥
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ॥
सायम्प्रातरधीयानः अपापो भवति ॥
सर्वतीर्थेषु स्नातो भवति ॥ सर्वैर्देवैर्ज्ञातो भवति॥
अवाच्यवचनात्पूतो भवति ॥ अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति ॥
अभोज्यभोजनात्पूतो भवति ॥ अचोष्यचोषणात्पूतो भवति ॥
असाध्यसाधनात्पूतो भवति ॥ दुष्प्रतिग्रहशत सहस्रात्पूतो भवति ॥
पङ्क्तिदूषणात्पूतो भवति ॥ अमृतवचनात्पूतो भवति ॥
अथाब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवती ॥
अनेन हृदयेनाधीतेन क्रतुसहस्रेणेष्टं भवति ॥
षष्टिशतसहस्रगायत्र्या जप्यानि फलानि भवन्ति ॥
अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्ग्राहयेत ॥ तस्य सिद्धिर्भवति ॥
य इदं नित्यमधीयानो ब्राह्मणः प्रातः शुचिः सर्वपापः प्रमुच्यत इति ॥ 
ब्रह्मलोके महीयते ॥ इत्याह भगवान श्रीनारायणः ॥
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इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे
गायत्रीहृदयं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्

आदिलक्ष्मी - 
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि, चन्द्र सहोदरि हेममये ॥
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि, मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ॥
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित, सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, आदिलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ १ ॥

धान्यलक्ष्मी - 
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि, वैदिकरूपिणि वेदमये ॥
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि, मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ॥
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि, देवगणाश्रित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ २ ॥

धैर्यलक्ष्मी - 
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि, मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये ॥
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद, ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ॥
भवभयहारिणि पापविमोचनि, साधुजनाश्रित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ३ ॥

गजलक्ष्मी - 
जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि, सर्वफलप्रद शास्त्रमये ॥
रथगज तुरगपदादि समावृत, परिजनमण्डित लोकनुते ॥
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित, तापनिवारिणि पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम ॥ ४ ॥

सन्तानलक्ष्मी - 
अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि, रागविवर्धिनि ज्ञानमये ॥
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि, स्वरसप्त भूषित गाननुते ॥
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर, मानववन्दित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम ॥ ५ ॥

विजयलक्ष्मी - 
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि, ज्ञानविकासिनि गानमये ॥
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर-भूषित वासित वाद्यनुते ॥
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित, शङ्कर देशिक मान्य पदे ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, विजयलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ६ ॥

विद्यालक्ष्मी - 
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि, शोकविनाशिनि रत्नमये  ॥
मणिमयभूषित कर्णविभूषण, शान्तिसमावृत हास्यमुखे ॥
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि, कामित फलप्रद हस्तयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ७ ॥

धनलक्ष्मी - 
धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि, दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये ॥
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम, शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ॥
वेदपुराणेतिहास सुपूजित, वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम ॥ ८ ॥