मंगलवार, 30 जून 2015

शिव पंचाक्षर स्तोत्रम्


नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांगराय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै “न” काराय नम: शिवाय ॥1॥

मंदाकिनी-सलिल-चंदन-चर्चिताय नंदीश्वर-प्रमथनाथ-महेश्वराय ।
मंदार-पुष्य-बहुपुष्य-सुपूजिताय तस्मै “म” काराय नम: शिवाय ॥2॥

शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द-सूर्याय दक्षाध्वर-नाशकाय ।
श्रीनीलकंठाय वृषध्वजाय तस्मै “शि” कारायनम: शिवाय ॥3॥

वशिष्ठ-कुम्भोद्भव गौतमार्य-मुनीन्द्र-देवार्चित-शेखराय ।
चंद्रार्क-वैश्वानर-लोचनाय तस्मै “व” काराय नम: शिवाय ॥4॥

यज्ञस्वरुपाय जटाधराय पिनाक-हस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै “य” काराय नम: शिवाय ॥5॥

पंचाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेत शिव संनिधौ । 
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

वेद में ओऽम (ॐ) का महत्व​..

ॐ शब्द के संधि विच्छेद से अ + उ + म वर्ण प्राप्त होते हैं। इसमें "अ" वर्ण "सृष्टि का द्योतक है "उ" वर्ण "स्थिती" का और "म​" से "लय" का बोध होता है। ओऽम से ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों का बोध होता है और इसके उच्चारण मात्र से इन तीनों देवों का आह्वाहन होता है। ओऽम के तीन अक्षर तीन अक्षर तीन वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) के भी प्रतीक माना गया है। 

कठोपनिषद में यमराज नचिकेता से कहते हैं-
सर्वे वेदा यत पद्ममामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद वदन्ति।
यदिच्छ्न्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीभ्योमित्येतत्॥

अर्थात- सभी वेदों ने जिस पद की महिमा का गुणगान किया है, तपस्वियों ने तप करके जिस शब्द का उच्चारण किया है, उसी महत्त्वपूर्ण शक्ति को साररूप में मैं तुम्हें समझाता हूँ। हे नचिकेता! समस्त वेदों का सार, तपस्वियों का तप और ज्ञानियों का ज्ञान केवल "ॐ" में ही निहित है।


श्रीमद्भागवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण  अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहर्न्यामनुस्मरन्। 
य​: प्रयाति त्यजनदेहं स याति परमां गतिम्॥

अर्थात-  मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, योगावस्थ में स्थित होकर जो पुरुष अक्षर रूपब्रह्म का चिंतन मनन करते हुए ।

कार्तिक पूर्णिमा व्रत

हमारे सनातन धर्म में पूर्णिमा व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक वर्ष 12 पूर्णिमाएं होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 13 हो जाती है। 
पूर्णमाः तत्र भवा पौर्णमासी (तिथिः) या पूर्णो मासों वर्तते अस्यामिति पौर्णमासी।
"हेमाद्रि" में आया है– पूर्णमासो भवेद यस्यां पूर्णमासी ततः स्मृता..

जब चन्द्र एवं बृहस्पति एक ही नक्षत्र में हों और तब पूर्णिमा हो तो उस पूर्णिमा या पौर्णमासी को महा कहा जाता है; ऐसी पौर्णमासी पर दान एवं उपवास "अक्षय" फलदायक होता है। ऐसी पौर्णमासी को "महाचैत्री", "महाकार्तिकी", "महा पौषी" आदि कहा जाता है। यदि इस दिन एक समय भोजन करके पूर्णिमा, चंद्रमा अथवा सत्यनारायण का व्रत करें तो सब प्रकार के सुख, सम्पदा और श्रेय की प्राप्ति होती है।

हर माह की पूर्णिमा को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता हैं। इस दिन का भारतीय जनजीवन में अत्यधिक महत्त्व हैं।

चैत्र की पूर्णिमा के दिन हनुमान जयन्ती मनायी जाती है। तो वैशाख की पूर्णिमा के दिन बुद्ध पूर्णिमा मनायी जाती है। ज्येष्ठ की पूर्णिमा के दिन वट सावित्री मनाया जाता है। तो आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। इस दिन कबीर जयंती मनायी जाती है। श्रावण की पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। तो भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन उमा माहेश्वर व्रत मनाया जाता है। अश्विन की पूर्णिमा के दिन शरद पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। कार्तिक की पूर्णिमा के दिन पुष्कर मेला और गुरु नानक जयंती पर्व मनाए जाते हैं। मार्गशीर्ष की पूर्णिमा के दिन श्री दत्तात्रेय जयंती मनाई जाती है। पौष की पूर्णिमा के दिन शाकंभरी जयंती मनाई जाती है। जैन धर्म के मानने वाले ऽपुष्यभिषेक यात्राऽ प्रारंभ करते हैं। बनारस में ऽदशाश्वमेधऽ तथा प्रयाग में ऽत्रिवेणी संगमऽ पर स्नान को बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। माघ की पूर्णिमा के दिन संत रविदास जयंती, श्री ललित जयंती और श्री भैरव जयंती मनाई जाती है। माघी पूर्णिमा के दिन संगम पर माघ-मेले में जाने और स्नान करने का विशेष महत्त्व है। फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन होली का पर्व मनाया जाता है।

कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा या गंगा स्नान के नाम से भी जाना जाता है । इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि आज के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। ऐसी मान्यता है कि इस दिन कृतिका में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है। इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से भी पूरे वर्ष स्नान करने का फाल मिलता है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।

इसमें कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है। यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है। इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है। कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो "पद्मक योग" बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
महत्व :
कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ आदि करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है। इस दिन किये जाने वाले अन्न, धन एव वस्त्र दान का भी बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन जो भी दान किया जाता हैं उसका कई गुणा लाभ मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस दिन व्यक्ति जो कुछ दान करता है वह उसके लिए स्वर्ग में संरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में उसे पुनःप्राप्त होता है।

शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।

स्नान और दान विधि :
महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है। शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय में हाथ में जल लेकर दान करें। आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।

श्री सूक्तम​


ॐ हिरण्य वर्णाम हरिणीम  सुवर्ण रजतस्त्रजाम । 
चन्द्रम हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वाह ॥1॥ 
भावार्थ :

हे जातवेदा सर्वज्ञ अग्नी देव आप सोने के समान रंग वाली किंचित हरितवर्ण से युक्त सोने व चांदी के हार पहनने वाली, चन्द्रवत प्रसन्नकांति स्वर्ण मयी  लक्ष्मी देवी का मेरे लिय आवाहन करें ।

ताम म आवाह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम । 
यस्याम हिरण्यं विन्देयं गामस्वम पुरुषानहम  ॥2॥ 
भावार्थ:
हे अग्ने! उन लक्ष्मी देवी का जिनका कभी विनाश नहीं होता है तथा जिनके आगमन से मै सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करू  मेरे लिए आवाहन करें ।

अश्व पूर्वाम रथ मध्याम हस्तिनाद प्रमोदिनीम्। 
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषतां  ॥3॥ 
भावार्थ :

जिन देवी की आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते है तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होते है, उन्हीं श्री देवी का मैं आवाहन करता हूँ, लक्ष्मी देवी मुझे प्राप्त हों ।

काम सोस्मिताम हिरण्य प्रकारामदराम ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम  
पद्मेस्थिताम पद्मवर्णाम तामिहोप ह्वये श्रियं ॥4॥ 
भावार्थ :

जो साक्षात ब्रह्मरूपा, मंद मंद मुस्कराने वाली , सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूरनकामा, भक्तानुगृह कारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा है, उन लक्ष्मी देवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ  ।

चन्द्रां प्रभासां  यशसा  जवलन्तीम श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम । 
ताम पद्मिनीम शरणम प्र  पद्य  अलक्ष्मीर्मे  नश्यतां त्वाम वृणे ॥5॥ 
भावार्थ : 

मैं चन्द्रमा के समान शुभ कान्तिवाली, सुंदर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्ग लोक में देवगणों के द्वारा पूजिता,  उदार शीला, पद्महस्ता लक्ष्मी देवी की शरण ग्रहण करता हूँ ।  मेरा दारिद्र्य दूर हो जाये इस हेतु मैं आपकी शरण लेता हूँ ।

आदित्यवर्णे तपसोअधि जातो वनस्पति स्तव वृक्षोंऽथ बिल्वः । 
तस्य फलानि तपस्या नुदन्तु या आन्तरा यास्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥ 
भावार्थ :

हे सूर्य के समान प्रकाश स्वरूपे तपसे वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्व वृक्ष उत्पन्न हुआ उसके फल आपके अनुग्रह से हमारे बाहरी और भीतर के दारिद्र्य को दूर करें ।

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।  
प्रदुर्भूतो अस्मि राष्ट्रे अस्मिन कीर्तिमृद्धिं ददातु में ॥7॥ 
भावार्थ :

हे देवी! देव सखा कुवेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष प्रजापती की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हो अथार्थ मुझे धन व यश की प्राप्ति हो । मैं इस देश में उत्पन्न हुवा हूँ! मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें ।

क्षुत पिपासामलाम ज्येष्ठाम् लक्ष्मीम नास्ययाम्यहम् ।  
अभूतिम समृद्धिम च सर्वां निर्णुद में गृहात ॥8॥ 
भावार्थ :

लक्ष्मी की  जेष्ठ बहन अलक्ष्मी जो भूख और प्यास से मलिन क्षीण काय रहती है उसका मै नाश चाहता हूँ । देवी मेरा  दारिद्र्य दूर हो ।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्य पुष्टां करीषिणीम ।  
ईश्वरीम सर्वभूतानां तामि होप ह्वये श्रियं ॥9॥ 
भावार्थ :

सुगन्धित जिनका  प्रवेशद्वार है, जो दुराधर्षां  तथा नित्य पुस्ठा  है और जो गोमय के बीच  निवास करती है सब भूतोकी स्वामिनी उन लक्ष्मी देवी का मै अपने घर में आवाहन करता हूँ ।

मनसः काम मकुतिम वाचः सत्यमशीमहि । 
पशूनां रूपमनस्य मई श्री श्रयतां यशः ॥10॥ 
भावार्थ :

मन की कामनाओ और संकल्प की सिद्धि  एवं वाणी  की सत्यता मुझे प्राप्त हो, गो आदि पशुओ एवं विभिन्न अन्नों भोग्य पदार्थों के रूप में था यश के रूप में श्री देवी हमारे यहाँ आगमन करें ।

कर्दमेन प्रजा भूता मई संभव कर्दम । 
श्रीयम वासय में कुले मातरम पद्ममालिनीम ॥11॥ 
भावार्थ :

लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान है । कर्दम ऋषि आप हमारे यहाँ उतपन्न हो तथा पद्मो की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मी  देवी को हमारे कुल में स्थापित करें ।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस में गृहे । 
नि च देवीम मातरम श्रियम वासय में कुले  ॥12॥ 
भावार्थ :

जल स्निग्ध पदार्थो की सृष्टी करें । लक्ष्मी पुत्र चिक्लीत आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मी देवी का मेरे कुल में निवास करायें ।

आर्द्रां पुष्करणीम पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम । 
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वाह ॥13॥ 
भावार्थ :

हे अग्ने आर्द्र स्वभाव, कमल हस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, कमलों की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कांति से युक्त स्वर्णमयी लक्ष्मी देवी का मेरे यहाँ आवाहन करें ।

आर्द्रां यः करिणीम यष्टिं सुवर्णाम हेममालिनीम । 
सुर्याम हिरण्यमयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वाह ॥14॥ 
भावार्थ :

हे अग्ने जो दुस्टो का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की है, जो मंगल दायिनी, अवलंबन प्रदान करने वाली यष्टि रूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमाला धारिणी, सूर्य स्वरूपा तथा हिरण्य मई हैं, उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिए आवाहन करें ।

ताम म आवाह जातवेदो लक्ष्मी मनपगामिनीम । 
यस्याम हिरण्यम प्रभूतं गावो दाशयो श्वान विन्देयं पुरुषानहम  ॥15॥  
भावार्थ :

हे अग्ने  कभी नष्ट न होने वाली  उन लक्ष्मी देवी का मेरे लिय आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत सा धन, गौएँ, दास, अश्व और पुत्रादि हमें प्राप्त हों ।

यः  शूचीः प्रयतो भूत्वा जुहुयादज्या मन्वहम । 
सूक्तम पंचदसर्च च श्रीकामः सततं जपेत  ॥16॥ 
भावार्थ :

जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदेिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नी में घी की आहुतियाँ दें तथा इन पंद्रह  ऋचा वाले श्री सूक्त का निरंतर पाठ करें ।

सोमवार, 29 जून 2015

शिवजी की आरती


ॐ जय शिव ओंकारा, स्वामी जय शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी धारा॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
एकानन चतुरानन पञ्चानन राजे।
हंसासन गरूड़ासन वृषवाहन साजे॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
दो भुज चार चतुर्भुज दसभुज अति सोहे।
त्रिगुण रूप निरखते त्रिभुवन जन मोहे॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी कंसारी कर माला धारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।
सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
कर के मध्य कमण्डलु चक्र त्रिशूलधारी।
सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
मधु-कैटभ दो‌उ मारे, सुर भयहीन करे॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
ब्रहमाणी रुद्राणी तुम कमला रानी।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
लक्ष्मी व सावित्री पार्वती संगा।
पार्वती अर्द्धांगी, शिवलहरी गंगा॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
पर्वत सोहैं पार्वती, शंकर कैलासा।
भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
जटा में गंग बहत है, गल मुण्डन माला।
शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
काशी में विराजे विश्वनाथ, नन्दी ब्रह्मचारी।
नित उठ दर्शन पावत, महिमा अति भारी॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥
त्रिगुणस्वामी जी की आरति जो कोइ नर गावे।
कहत शिवानन्द स्वामी, मनवान्छित फल पावे॥
ॐ जय शिव ओंकारा॥

आरती श्री रामचन्द्रजी

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन, हरण भवभय दारुणम्।
नव कंज लोचन, कंज मुख कर कंज पद कंजारुणम्॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरद सुन्दरम्।
पट पीत मानहुं तड़ित रूचि-शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनम्।
रघुनन्द आनन्द कन्द कौशल चन्द्र दशरथ नन्द्नम्॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारू उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर चाप-धर, संग्राम जित खरदूषणम्॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
इति वदति तुलसीदास, शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम ह्रदय कंज निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
मन जाहि राचेऊ मिलहि सो वर सहज सुन्दर सांवरो।
करुणा निधान सुजान शील सनेह जानत रावरो॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय हित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन...।

श्री शिवशंकरजी की आरती


सत्य, सनातन, सुन्दर, शिव सबके स्वामी।
अविकारी अविनाशी, अज अन्तर्यामी॥
हर हर हर महादेव!
आदि, अनन्त, अनामय, अकल, कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥
हर हर हर महादेव!
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता, तुम ही संहारी॥
हर हर हर महादेव!
रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औढरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता अभिमानी॥
हर हर हर महादेव!
मणिमय-भवन निवासी, अति भोगी रागी।
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥
हर हर हर महादेव!
छाल-कपाल, गरल-गल, मुण्डमाल व्याली।
चिता भस्मतन त्रिनयन, अयनमहाकाली॥
हर हर हर महादेव!
प्रेत-पिशाच-सुसेवित, पीत जटाधारी।
विवसन विकट रूपधर, रुद्र प्रलयकारी॥
हर हर हर महादेव!
शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मन-हारी॥
हर हर हर महादेव!
निर्गुण, सगुण, निरञ्जन, जगमय नित्य प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥
हर हर हर महादेव!
सत्‌, चित्‌, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम-सुधा-निधि प्रियतम, अखिल विश्व त्राता॥
हर हर हर महादेव!
हम अतिदीन, दयामय! चरण-शरण दीजै।
सब विधि निर्मल मति कर, अपना कर लीजै॥
हर हर हर महादेव!

श्री बाँकेबिहारी की आरती


श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ। कुन्जबिहारी तेरी आरती गाऊँ।
श्री श्यामसुन्दर तेरी आरती गाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

मोर मुकुट प्रभु शीश पे सोहे। प्यारी बंशी मेरो मन मोहे।
देखि छवि बलिहारी जाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

चरणों से निकली गंगा प्यारी। जिसने सारी दुनिया तारी।
मैं उन चरणों के दर्शन पाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

दास अनाथ के नाथ आप हो। दुःख सुख जीवन प्यारे साथ हो।
हरि चरणों में शीश नवाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

श्री हरि दास के प्यारे तुम हो। मेरे मोहन जीवन धन हो।
देखि युगल छवि बलि-बलि जाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

आरती गाऊँ प्यारे तुमको रिझाऊँ। हे गिरिधर तेरी आरती गाऊँ।
श्री श्यामसुन्दर तेरी आरती गाऊँ। श्री बाँकेबिहारी तेरी आरती गाऊँ॥

आरती कुंजबिहारी की


आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की ॥
गले में बैजंती माला, बजावै मुरली मधुर बाला।
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नंद के आनंद नंदलाला।
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली।
लतन में ठाढ़े बनमाली;
भ्रमर सी अलक, कस्तूरी तिलक, चंद्र सी झलक;
ललित छवि श्यामा प्यारी की॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 

कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसैं।
गगन सों सुमन रासि बरसै;
बजे मुरचंग, मधुर मिरदंग, ग्वालिन संग;
अतुल रति गोप कुमारी की॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 

जहां ते प्रकट भई गंगा, कलुष कलि हारिणि श्रीगंगा।
स्मरन ते होत मोह भंगा;
बसी सिव सीस, जटा के बीच, हरै अघ कीच;
चरन छवि श्रीबनवारी की॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 

चमकती उज्ज्वल तट रेनू, बज रही वृंदावन बेनू।
चहुं दिसि गोपि ग्वाल धेनू;
हंसत मृदु मंद, चांदनी चंद, कटत भव फंद;
टेर सुन दीन भिखारी की॥
श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥ 
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्णमुरारी की॥  

आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥
आरती कुंजबिहारी की, श्री गिरिधर कृष्ण मुरारी की॥

आरती श्री हनुमानजी


आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ कला की॥
जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जाके निकट न झांके॥
अंजनि पुत्र महा बलदाई। सन्तन के प्रभु सदा सहाई॥
दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंका सो कोट समुद्र-सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई॥
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि संजीवन प्राण उबारे॥
पैठि पाताल तोरि जम-कारे। अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएं भुजा असुरदल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे॥
सुर नर मुनि आरती उतारें। जय जय जय हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई॥
जो हनुमानजी की आरती गावे। बसि बैकुण्ठ परम पद पावे॥
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शुक्रवार, 26 जून 2015

॥ अथ श्री शिवाष्टकम ॥


प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम । 
भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ १ ॥ 

गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणेशादि पालम । 
जटाजूट गङ्गोत्तरङ्गै र्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ २ ॥ 

मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम । 
अनादिं ह्यपारं महा मोहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ३ ॥ 

वटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम । 
गिरीशं गणेशं सुरेशं महेशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ४ ॥ 

गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गेहम । 
परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ५ ॥ 

कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोज नम्राय कामं ददानम । 
बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ६ ॥ 

शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम । 
अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ७ ॥ 

हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारं। 
श्मशाने वसन्तं मनोजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ ८ ॥ 

स्वयं यः प्रभाते नरश्शूल पाणे पठेत स्तोत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम ।
सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मोक्षं प्रयाति ॥

गुरुवार, 25 जून 2015

दारिद्रयदहन शिवस्तोत्रम्‌

विश्वेश्वराय नरकार्णवतारणाय, कर्णामृताय शशिशेखरधारणाय।
कर्पूरकांतिधवलाय जटाधराय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥१॥
गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय, कालान्तकाय भुजंगाधिपकङ्कणाय।
गङ्गाधराय गजराजविमर्दनाय , 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय . ॥२॥
भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय, उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय।
ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय॥३॥
चर्माम्बराय शवभस्मविलेपनाय, भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय।
मञ्जीरपादयुगलाय जटाधराय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय॥४॥
पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय, हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय।
आनंतभूमिवरदाय तमोमयाय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥५॥
भानुप्रियाय भवसागरतारणाय, कालान्तकाय कमलासनपूजिताय।
नेत्रत्रयाय शुभलक्षणलक्षिताय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥६॥
रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय, नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय।
पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥७॥
मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय, गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय।
मातङग्‌चर्मवसनाय महेश्वराय, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥८॥
वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणम्‌, सर्वसम्पत्करं शीघ्रं पुत्र पौत्रादिवर्धनम्‌।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात्‌, 
दारिद्रयदुःखदहनाय नमः शिवाय ॥९॥
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॥इति श्रीदारिद्रयदहन शिवस्तोत्रम्‌

बुधवार, 24 जून 2015

घालिन लोटांगण​


घालिन लोटांगण वंदीन चरण, डोळ्यांनी पाहिन रूप तुझे ।

प्रेमे आलिंगन आनंदे पूजिन​,  भावें ओवाळिन म्हणे नामा ॥१॥

त्वमेव माता च पिता त्वमेव​, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। 

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥२॥

कायेन वाचा मनसेन्द्रिऐवा, बुध्यात्मना वा प्रकृते स्वभावात। 

करोमि यद यद सकलं परस्मै, नारायणायेति समर्पयामि ॥३॥

अच्युतं केशवं रामनारायणं, कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम । 

श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं, जानकीनायकं रामचंद्रं भजे ॥४॥

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे । हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे ॥५॥
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ​।
निर्विघ्नम कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
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मंत्र पुष्पांजली
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
तेहनाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वेऽ साध्या: सन्ति देवा:॥
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने३ नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे।
स मे कामान् कामकामाय मह्यं। कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:॥

ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समन्तपर्यायी स्यात् सार्वभौम: सार्वायुषान्तादापरार्धात पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति सार्वभौम: सार्वायुषान्तादापरार्धात पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन् गृहे। आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।

ॐ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत  विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन् देव एकः ॥
ॐ वक्रतुण्डाय विद्महे एक दन्ताय धीमहि। तन्नो दन्ति प्रचोदयात्‌ ॥
मंत्रपुष्पाञ्जलि पुष्पं समर्पयामि ॥
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गणराजाची आरती


शेंदुर लाल चढायो अच्छा गजमुख को, 
दोन्दिल लाल विराजे सुत गौरीहर को।

हाथ लिए गुड़ लड्डू साई सुरवर को, 
महिमा कहे न जाय लागत हुँ पद को॥४

जय जय जय जय जय
जय जय जी गणराज विद्यासुखदाता, 
धन्य तुम्हारो दर्शन मेरा मत रमता
जय देव जय देव ॥

अष्ट सिधि दासी संकट को बैरी, 
विघन विनाशन मंगल मूरत अधिकारी।

कोटि सूरज प्रकाश ऐसे छबी तेरी, 
गंडस्थल मद्मस्तक झूल शशि बहरी॥५

जय जय जय जय जय
जय जय जी गणराज विद्यासुखदाता, 
धन्य तुम्हारो दर्शन मेरा मत रमता
जय देव जय देव ॥

भावभगत से कोई शरणागत आवे, 
संतति संपत्ति सबही भरपूर पावे।

ऐसे तुम महराज मोको अति भावे, 
गोसावी नंदन निशिदिन गुण गावे॥६

जय जय जय जय जय
जय जय जी गणराज विद्यासुखदाता, 
धन्य तुम्हारो दर्शन मेरा मत रमता
जय देव जय देव ॥

गणपती आरती

सुख करता दु:ख हरता वार्ता विघ्नाची, नूर्वी पूर्वी प्रेम कृपा जयाची।
सर्वांगी सुन्दर उतीशेंदु राची, कंठी झलके माल मुखता पधांची॥१
जय देव जय देव जय मंगल मूर्ति, दर्शन मारते मन कामना पूर्ति.
जय देव जय देव ॥
रत्नखचित फरा तुझ गौरीकुमरा, चंदनाची उती कुमकुम के सहारा।
हीरे जडित मुकुट शोभतो बरा, रुण्झुनती नूपुरे चरनी घागरिया॥२
जय देव जय देव जय मंगल मूर्ति, दर्शन मारते मन कामना पूर्ति.
जय देव जय देव ॥
लम्बोदर पीताम्बर फनिवर वंदना, सरल सोंड वक्रतुंडा त्रिनयना।
दास रामाचा वाट पाहे सदना, संकटी पावावे निर्वाणी रक्षावे सुरवर वंदना ॥३
जय देव जय देव जय मंगल मूर्ति, दर्शन मारते मन कामना पूर्ति.
जय देव जय देव ॥

शनिवार, 20 जून 2015

द्वादश ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम्


सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥

परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥

वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥

एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥

एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति।
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥

॥ श्री कनकधारा स्तोत्रम ॥


अंगहरे पुलकभूषण माश्रयन्ती भृगांगनैव मुकुलाभरणं तमालम।
अंगीकृताखिल विभूतिरपांगलीला मांगल्यदास्तु मम मंगलदेवताया:॥१॥
जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी का वह कटाक्ष मेरे लिए मंगलदायी हो॥१॥

मुग्ध्या मुहुर्विदधती वदनै मुरारै: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि।
माला दृशोर्मधुकर विमहोत्पले या सा मै श्रियं दिशतु सागर सम्भवाया:॥२॥
जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करे ॥२॥

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्द हेतु रधिकं मधुविद्विषोपि।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्द्धमिन्दोवरोदर सहोदरमिन्दिराय:॥३॥
जो संपूर्ण देवताओं के अधिपति इंद्र के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मधुहन्ता श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है तथा जो नीलकमल के भीतरी भाग के समान मनोहर जान पड़ती है, उन लक्ष्मीजी के अधखुले नेत्रों की दृष्टि क्षण भर के लिए मुझ पर थोड़ी सी अवश्य पड़े॥३॥

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दम निमेषमनंगतन्त्रम्।
आकेकर स्थित कनी निकपक्ष्म नेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजंगरायांगनाया:॥४॥
शेषशायी भगवान विष्णु की धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीजी के नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हों, जिनकी पु‍तली तथा बरौनियाँ अनंग के वशीभूत हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष (अपलक) नयनों से देखने वाले आनंदकंद श्री मुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं॥४॥

बाह्यन्तरे मधुजित: श्रितकौस्तुभै या हारावलीव हरि‍नीलमयी विभाति।
कामप्रदा भगवतो पि कटाक्षमाला कल्याण भावहतु मे कमलालयाया:॥५॥
जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे॥५॥

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव्।
मातु: समस्त जगतां महनीय मूर्तिभद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनाया:॥६॥
जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के श्यामसुंदर वक्षस्थल पर प्रकाशित होती है, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीय मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे॥६॥

प्राप्तं पदं प्रथमत: किल यत्प्रभावान्मांगल्य भाजि: मधुमायनि मन्मथेन।
मध्यापतेत दिह मन्थर मीक्षणार्द्ध मन्दालसं च मकरालयकन्यकाया:॥७॥
समुद्र कन्या कमला की वह मंद, अलस, मंथर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े॥७॥

दद्याद दयानुपवनो द्रविणाम्बुधाराम स्मिभकिंचन विहंग शिशौ विषण्ण।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण प्रणयिनी नयनाम्बुवाह:॥८॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करे॥८॥ 

इष्टा विशिष्टमतयो पि यथा ययार्द्रदृष्टया त्रिविष्टपपदं सुलभं लभंते।
दृष्टि: प्रहूष्टकमलोदर दीप्ति रिष्टां पुष्टि कृषीष्ट मम पुष्कर विष्टराया:॥९॥
विशिष्ट बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीति पात्र होकर जिस दया दृष्टि के प्रभाव से स्वर्ग पद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, पद्‍मासना पद्‍मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कांतिमयी दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे॥९॥

गीर्देवतैति गरुड़ध्वज भामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर वल्लभेति।
सृष्टि स्थिति प्रलय केलिषु संस्थितायै तस्यै ‍नमस्त्रि भुवनैक गुरोस्तरूण्यै ॥१०॥
जो सृष्टि लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है॥१०॥

श्रुत्यै नमोस्तु शुभकर्मफल प्रसूत्यै रत्यै नमोस्तु रमणीय गुणार्णवायै।
शक्तयै नमोस्तु शतपात्र निकेतानायै पुष्टयै नमोस्तु पुरूषोत्तम वल्लभायै॥११॥
मात:। शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है॥११॥

नमोस्तु नालीक निभाननायै नमोस्तु दुग्धौदधि जन्म भूत्यै ।
नमोस्तु सोमामृत सोदरायै नमोस्तु नारायण वल्लभायै॥१२॥ 
कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है॥१२॥ 

सम्पतकराणि सकलेन्द्रिय नन्दानि साम्राज्यदान विभवानि सरोरूहाक्षि।
त्व द्वंदनानि दुरिता हरणाद्यतानि मामेव मातर निशं कलयन्तु नान्यम्॥१३॥
कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय माँ! आपके चरणों में किए गए प्रणाम संपत्ति प्रदान करने वाले, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे ही अवलम्बन दें। (मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे)॥१३॥

यत्कटाक्षसमुपासना विधि: सेवकस्य कलार्थ सम्पद:।
संतनोति वचनांगमानसंसत्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे॥१४॥
जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ॥१४॥ 

सरसिजनिलये सरोज हस्ते धवलमांशुकगन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥१५॥
भगवती हरिप्रिया! तुम कमल वन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में नीला कमल सुशोभित है। तुम अत्यंत उज्ज्वल वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित हो। तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवी, मुझ पर प्रसन्न हो जाओ॥१५॥

दग्धिस्तिमि: कनकुंभमुखा व सृष्टिस्वर्वाहिनी विमलचारू जल प्लुतांगीम।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेष लोकाधिनाथ गृहिणी ममृताब्धिपुत्रीम्॥१६॥
दिग्गजों द्वारा सुवर्ण-कलश के मुख से गिराए गए आकाश गंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक (स्नान) संपादित होता है, संपूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रात:काल प्रणाम करता हूँ॥१६॥ 

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूरतरां गतैरपाड़ंगै:।
अवलोकय माम किंचनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयाया : ॥१७॥
कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले!  मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो॥१७॥

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिर भूमिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्। 
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते बुधभाविताया:॥१८॥
जो मनुष्य इन स्तु‍तियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं॥१८॥
इति श्री कनकधारा स्तोत्रं सम्पूर्णम
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