गुरुवार, 16 जुलाई 2015

गायत्रीहृदयम

॥ अथ श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे गायत्रीहृदयम ॥

॥ नारद उवाच ॥
भगवन्देवदेवेश भूतभव्य जगत्प्रभो ।
कवचं च शृतं दिव्यं गायत्रीमन्त्रविग्रहम ॥१॥
अधुना श्रोतुमिच्छामि गायत्रीहृदयं परम ।
यद्धारणाद्भवेत्पुण्यं गायत्रीजपतोऽखिलम ॥२॥

॥ श्रीनारायण उवाच ॥
देव्याश्च हृदयं प्रोक्तं नारदाथर्वणे स्फुटम ।
तदेवाहं प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम ॥३॥
विराड्रूपां महादेवीं गायत्रीं वेदमातरम ।
ध्यात्वा तस्यास्त्वथाङ्गेषु ध्यायेदेताश्च देवताः ॥४॥

पिण्डब्रह्मण्दयोरैक्याद्भावयेत्स्वतनौ तथा ।
देवीरूपे निजे देहे तन्मयत्वाय साधकः ॥ ५॥
नादेवोऽभ्यर्चयेद्देवमिति वेदविदो विदुः ।
ततोऽभेदाय काये स्वे भावयेद्देवता इमाः ॥ ६॥

अथ तत्सम्प्रवक्ष्यामि तन्मयत्वमयो भवेत ।
गायत्रीहृदयस्यास्याप्यहमेव ऋषिः स्मृतः ॥ ७॥
गायत्रीछन्द उद्दिष्टं देवता परमेश्वरी ।
पूर्वोक्तेन प्रकारेण कुर्यादङ्गानि षट क्रमात ।
आसने विजने देशे ध्यायेदेकाग्रमानसः ॥ ८॥

 ॥ अथार्थन्यासः ॥ 
द्यौमूर्ध्नि दैवतम ॥ दन्तपङ्क्तावश् विनौ ॥ उभे सन्ध्ये चौष्ठौ ॥ मुखमग्निः ॥ जिह्वा सरस्वती ॥ ग्रीवायां तु बृहस्पतिः ॥स्तनयोर्वसवोऽष्टौ ॥ बाह्वोर्मरुतः ॥ हृदये पर्जन्यः ॥आकाशमुदरम ॥ नाभावन्तरिक्षम ॥ कट्योरिन्द्राग्नी ॥ जघने विज्ञानघनः प्रजापतिः ॥ कैलासमलये ऊरू ॥ विश्वेदेवा जान्वोः ॥ जङ्घायां कौशिकः ॥ गुह्यमयने ॥ ऊरू पितरः ॥ पादौ पृथिवी ॥ वनस्पतयोङ्गुलीषु ॥ऋषयो रोमाणि ॥ नखानि मुहूर्तानि ॥ अस्थिषु ग्रहाः ॥ असृङ्मांसमृतवः ॥ संवत्सरा वै निमिषम ॥ अहोरात्रावादित यश्चन्द्रमाः ॥ प्रवरं दिव्यां गायत्रीं सहस्रनेत्रां शरणमहं प्रपद्ये ॥ ॐ तत्सवितुर्वरेण्याय नमः ॥ ॐ तत्पूर्वाजयाय नमः ॥ तत्प्रातरादित्याय नमः ॥ तत्प्रातरादित्य प्रतिष्ठायै नमः ॥
प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ॥
सायम्प्रातरधीयानः अपापो भवति ॥
सर्वतीर्थेषु स्नातो भवति ॥ सर्वैर्देवैर्ज्ञातो भवति॥
अवाच्यवचनात्पूतो भवति ॥ अभक्ष्यभक्षणात्पूतो भवति ॥
अभोज्यभोजनात्पूतो भवति ॥ अचोष्यचोषणात्पूतो भवति ॥
असाध्यसाधनात्पूतो भवति ॥ दुष्प्रतिग्रहशत सहस्रात्पूतो भवति ॥
पङ्क्तिदूषणात्पूतो भवति ॥ अमृतवचनात्पूतो भवति ॥
अथाब्रह्मचारी ब्रह्मचारी भवती ॥
अनेन हृदयेनाधीतेन क्रतुसहस्रेणेष्टं भवति ॥
षष्टिशतसहस्रगायत्र्या जप्यानि फलानि भवन्ति ॥
अष्टौ ब्राह्मणान्सम्यग्ग्राहयेत ॥ तस्य सिद्धिर्भवति ॥
य इदं नित्यमधीयानो ब्राह्मणः प्रातः शुचिः सर्वपापः प्रमुच्यत इति ॥ 
ब्रह्मलोके महीयते ॥ इत्याह भगवान श्रीनारायणः ॥
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इति श्रीदेवीभागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे
गायत्रीहृदयं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥

अष्टलक्ष्मी स्तोत्रम्

आदिलक्ष्मी - 
सुमनसवन्दित सुन्दरि माधवि, चन्द्र सहोदरि हेममये ॥
मुनिगणमण्डित मोक्षप्रदायिनि, मञ्जुळभाषिणि वेदनुते ॥
पङ्कजवासिनि देवसुपूजित, सद्गुणवर्षिणि शान्तियुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, आदिलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ १ ॥

धान्यलक्ष्मी - 
अहिकलि कल्मषनाशिनि कामिनि, वैदिकरूपिणि वेदमये ॥
क्षीरसमुद्भव मङ्गलरूपिणि, मन्त्रनिवासिनि मन्त्रनुते ॥
मङ्गलदायिनि अम्बुजवासिनि, देवगणाश्रित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धान्यलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ २ ॥

धैर्यलक्ष्मी - 
जयवरवर्णिनि वैष्णवि भार्गवि, मन्त्रस्वरूपिणि मन्त्रमये ॥
सुरगणपूजित शीघ्रफलप्रद, ज्ञानविकासिनि शास्त्रनुते ॥
भवभयहारिणि पापविमोचनि, साधुजनाश्रित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धैर्यलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ३ ॥

गजलक्ष्मी - 
जयजय दुर्गतिनाशिनि कामिनि, सर्वफलप्रद शास्त्रमये ॥
रथगज तुरगपदादि समावृत, परिजनमण्डित लोकनुते ॥
हरिहर ब्रह्म सुपूजित सेवित, तापनिवारिणि पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, गजलक्ष्मि रूपेण पालय माम ॥ ४ ॥

सन्तानलक्ष्मी - 
अहिखग वाहिनि मोहिनि चक्रिणि, रागविवर्धिनि ज्ञानमये ॥
गुणगणवारिधि लोकहितैषिणि, स्वरसप्त भूषित गाननुते ॥
सकल सुरासुर देवमुनीश्वर, मानववन्दित पादयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, सन्तानलक्ष्मि त्वं पालय माम ॥ ५ ॥

विजयलक्ष्मी - 
जय कमलासनि सद्गतिदायिनि, ज्ञानविकासिनि गानमये ॥
अनुदिनमर्चित कुङ्कुमधूसर-भूषित वासित वाद्यनुते ॥
कनकधरास्तुति वैभव वन्दित, शङ्कर देशिक मान्य पदे ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, विजयलक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ६ ॥

विद्यालक्ष्मी - 
प्रणत सुरेश्वरि भारति भार्गवि, शोकविनाशिनि रत्नमये  ॥
मणिमयभूषित कर्णविभूषण, शान्तिसमावृत हास्यमुखे ॥
नवनिधिदायिनि कलिमलहारिणि, कामित फलप्रद हस्तयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, विद्यालक्ष्मि सदा पालय माम ॥ ७ ॥

धनलक्ष्मी - 
धिमिधिमि धिंधिमि धिंधिमि धिंधिमि, दुन्दुभि नाद सुपूर्णमये ॥
घुमघुम घुंघुम घुंघुम घुंघुम, शङ्खनिनाद सुवाद्यनुते ॥
वेदपुराणेतिहास सुपूजित, वैदिकमार्ग प्रदर्शयुते ॥
जयजय हे मधुसूदन कामिनि, धनलक्ष्मि रूपेण पालय माम ॥ ८ ॥

जन्माष्टमी

श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरापहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जात है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

जन्माष्टमी माखन चुराते बाल कृष्ण आधिकारिक नाम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी अनुयायी हिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासी उद्देश्य भगवान कृष्ण के आदर्शों को याद करना आरम्भ अति प्राचीन तिथि भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी अनुष्ठान श्रीकृष्ण की झाँकी सजाना व्रत व पूजन उत्सव प्रसाद बाँटना, भजन गाना इत्यादि समान पर्व राधा अष्टमी

श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरापहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जात है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

विधि :
श्रीकृष्णजन्माष्टमीका व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। इस दिन उपवास रखें तथा अन्न का सेवन न करें। समाज के सभी वर्ग भगवान श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव-महोत्सव को अपनी सामर्थ्य के अनुसार उत्साहपूर्वक मनाएं। गौतमीतंत्रमें यह निर्देश है-
उपवास : 
प्रकर्त व्योन भोक्तव्यं कदाचन। कृष्ण जन्म दिनेयस्तुभुड्क्ते सतुनराधम:। निवसेन्नरकेघोरे यावदा भूत सम्प्लवम्॥

अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है।

धार्मिक गृहस्थोंके घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं। भगवान के श्रीविग्रहका शृंगार करके उसे झूला झुलाया जाता है। श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखते हैं। अर्धरात्रिके समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक होता है। तदोपरांत श्रीविग्रहका षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। कुछ लोग रात के बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक स्वरूप खीरा चीर कर बालगोपाल की आविर्भाव-लीला करते हैं। 
जागरण :
धर्मग्रंथों में जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण का विधान भी बताया गया है। कृष्णाष्टमी की रात में भगवान के नाम का संकीर्तन या उनके मंत्र - "ॐ नमोभगवतेवासुदेवाय" का जाप अथवा श्रीकृष्णावतारकी कथा का श्रवण करें। श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए रात भर जगने से उनका सामीप्य तथा अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जन्मोत्सव के पश्चात घी की बत्ती, कपूर आदि से आरती करें तथा भगवान को भोग में निवेदित खाद्य पदार्थो को प्रसाद के रूप में वितरित करके अंत में स्वयं भी उसको ग्रहण करें।

आज जन्माष्टमी का व्रत करने वाले वैष्णव प्रात:काल नित्यकर्मो से निवृत्त हो जाने के बाद इस प्रकार संकल्प करें-
ॐ विष्णुविर्ष्णुविष्णु: अद्य शर्वरी नाम संवत्सरेसूर्ये दक्षिणायने वर्ष तरै भाद्रपद मासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्णजन्माष्टम्यांतिथौ--अमुक वासरे--अमुकनामाहं(अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्गसिद्धि द्वारा श्रीकृष्णदेव प्रीतये जन्माष्टमी व्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्ण देवस्ययथामिलितोपचारै: पूजनं करिष्ये।

वैसे तो जन्माष्टमी के व्रत में पूरे दिन उपवास रखने का नियम है, परंतु इसमें असमर्थ फलाहार कर सकते हैं। 

व्रतकत्र्ताभगवत्कृपाका भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं। दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। गृहस्थोंको पूर्वोक्त द्वादशाक्षरमंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ इस मंत्र का अधिकाधिक जप करें- कृष्णायवासुदेवायहरयेपरमात्मने। प्रणतक्लेशनाशायगोविन्दायनमोनम:॥
उपर्युक्त मंत्र का नित्य जाप करते हुए सच्चिदानंदघनश्रीकृष्ण की आराधना करें। इससे परिवार में खुशियां वापस लौट आएंगी। घर में विवाद और विघटन दूर होगा। उपवास के बारे में मुख्य लेख : जन्माष्टमी व्रत कथा
अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो ऽजयंतीऽ नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए।

विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें। 
मोहरात्रि :
श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्तिहटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।

व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासीउसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनिबजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।
जागरण :
वैसे तो जन्माष्टमी के व्रत में पूरे दिन उपवास रखने का नियम है, परंतु इसमें असमर्थ फलाहार कर सकते हैं।
भविष्यपुराणानुसार जन्माष्टमीव्रत-माहात्म्यमें यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराजके अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रतकत्र्ताभगवत्कृपाका भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं। दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। गृहस्थोंको पूर्वोक्त द्वादशाक्षरमंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ इस मंत्र का अधिकाधिक जप करें-
कृष्णायवासुदेवायहरयेपरमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशायगोविन्दायनमोनम:॥
उपर्युक्त मंत्र का नित्य जाप करते हुए सच्चिदानंदघनश्रीकृष्ण की आराधना करें। इससे परिवार में खुशियां वापस लौट आएंगी। घर में विवाद और विघटन दूर होगा।

जन्माष्टमी व्रत कथा :
अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है।

स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। 

यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो ऽजयंतीऽ नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। 

धनतेरस

जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है । धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें १३ गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।
प्रथा :
धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। अगर सम्भव न हो तो कोइ बर्तन खरिदे। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें। यह दिन व्यापारियोँ
कथा :
धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ।ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है । यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं।
धन्वंतरि :
धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हें परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके।

एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।

धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं।

अहोई अष्टमी

अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन किया जाता है। पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय होई का पूजन किया जाता है। तारों को करवा से अर्घ्य भी दिया जाता है। यह होई गेरु आदि के द्वारा दीवाल पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर होई काढकर पूजा के समय उसे दीवाल पर टांग दिया जाता है।

विधि
उत्तर भारत के विभिन्न अंचलों में अहोईमाता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की होई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है। तत्पश्चात एक पाटे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। अहोईअष्टमी की दो लोक कथाएं प्रचलित हैं।

अनुष्ठन
मंगल पाठ, शान्ती पाठ, संकल्प, गणपती आह्वाहन, वरुण पूजन, गौरी पूजन, मात्रिका पूजन, 
नवग्रह पूजन, हवन, आरती।

जय जगदीश हरे

जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ जय ..

जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।
सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ जय ..

मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ जय ..

तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
पार ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ जय ..

तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ जय ..

तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥  जय ..

दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥  जय ..

विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ जय ..

जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..

आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..

अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..

विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..

माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय.. 

साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..

राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..

सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..

आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..

लक्ष्मी माता की आरती

ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता
तुम को निस दिन सेवत, मैयाजी को निस दिन सेवत 
हर विष्णु विधाता.. ॐ जय लक्ष्मी माता॥ ...

उमा रमा ब्रह्माणी, तुम ही जग माता, ओ मैया तुम ही जग माता 
सूर्य चन्द्र माँ ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥…..ॐ जय लक्ष्मी माता 

दुर्गा रूप निरन्जनि, सुख सम्पति दाता, ओ मैया सुख सम्पति दाता 
जो कोई तुम को ध्यावत, ऋद्धि सिद्धि धन पाता॥.…ॐ जय लक्ष्मी माता 

तुम पाताल निवासिनि, तुम ही शुभ दाता, ओ मैया तुम ही शुभ दाता 
कर्म प्रभाव प्रकाशिनि, भव निधि की दाता॥….ॐ जय लक्ष्मी माता 

जिस घर तुम रहती तहँ सब सद्गुण आता, ओ मैया सब सद्गुण आता 
सब संभव हो जाता, मन नहीं घबराता॥…ॐ जय लक्ष्मी माता

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता, ओ मैया वस्त्र न कोई पाता 
ख़ान पान का वैभव, सब तुम से आता॥….ॐ जय लक्ष्मी माता 

शुभ गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि जाता, ओ मैया क्षीरोदधि जाता 
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता ॥….ॐ जय लक्ष्मी माता 

महा लक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता, ओ मैया जो कोई जन गाता 
उर आनंद समाता, पाप उतर जाता॥…. ॐ जय लक्ष्मी माता ॥

श्री रामाष्टक

हे रामा पुरुषोत्तमा नरहरे नारायणा केशव ।
गोविन्दा गरुड़ध्वजा गुणनिधे दामोदरा माधवा ॥
हे कृष्ण कमलापते यदुपते सीतापते श्रीपते ।
बैकुण्ठाधिपते चराचरपते लक्ष्मीपते पाहिमाम ॥

आदौ रामतपोवनादि गमनं हत्वा मृगं कांचनम ।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव सम्भाषणम ॥
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनम ।
पश्चाद्रावण कुम्भकर्णहननं एतद्घि रामायणम ॥
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दिनेशवंशभूषणं समग्रलोकनायकम्।
समस्तमोदवर्धकं नममि भक्त पालकम्॥१॥
सुबाहुदर्पखण्डनं महेशचाप भंजनम्।
विदेहचित्तरंजनं नममि जानकीपतिम्॥२॥
मनोजगर्वमोचनं नवीन मेघशोभनम्।
प्रलम्बबाहुसुन्दरं नमामि चित्त मोहनम्॥३॥
मुखारविन्दशोभनं विशाल दिव्यलोचनम्।
सदासुखैकदायकं नममि रामनागरम्॥४॥
सुरारिवृन्दमर्दनं समग्रलोकरक्षकम्॥
समस्त पापखण्डनं नमामि शोक मोचनम्॥५॥
धराभरावतारकं समस्तलोकपालकम्।
समस्तजीवपोषणं नमामि दीनवत्सल्म्॥६॥
भवाब्धि घोरपारकं समग्रदोषशोषणम्।
स्वबन्धुदुःखनाशनं नमामि भक्तवत्सलम्॥७॥
तपोवने विहारिणं मुनीन्द्रवृन्दसेवितम्।
स्वभक्त मोक्षदायिनं नमामि नित्यराघवम्॥८॥
रामाष्टकमिदं पुण्यं नरो यः प्रत्यहं पठेत्।
पुण्यावाप्तिर्भवेत्तस्य रामवनस्य दर्शनात्॥

राधा जी की आरती

आरती श्री वृषभानुसुता की । मंजु मूर्ति मोहन ममताकी ॥ टेक ॥

त्रिविध तापयुत संसृति नाशिनि, विमल विवेकविराग विकासिनि ।
पावन प्रभु पद प्रीति प्रकाशिनि, सुन्दरतम छवि सुन्दरता की ॥

मुनि मन मोहन मोहन मोहनि, मधुर मनोहर मूरती सोहनि ।
अविरलप्रेम अमिय रस दोहनि, प्रिय अति सदा सखी ललिताकी ॥

संतत सेव्य सत मुनि जनकी, आकर अमित दिव्यगुन गनकी ।
आकर्षिणी कृष्ण तन मनकी, अति अमूल्य सम्पति समता की ॥

कृष्णात्मिका, कृषण सहचारिणि, चिन्मयवृन्दा विपिन विहारिणि ।
जगज्जननि जग दुःखनिवारिणि, आदि अनादिशक्ति विभुताकी ॥

श्रीअम्बाजी की आरती


सर्वमंगल मांग्लयै , शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बिके गौरी , नारायणी नमोऽस्तुते ॥
जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी तुम को निस दिन ध्यावत
मैयाजी को निस दिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिवजी ॥…. जय अम्बे गौरी ॥

माँग सिन्दूर विराजत टीको मृग मद को ।मैया टीको मृगमद को
उज्ज्वल से दो नैना चन्द्रवदन नीको॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

कनक समान कलेवर रक्ताम्बर साजे। मैया रक्ताम्बर साजे
रक्त पुष्प गले माला कण्ठ हार साजे॥…. जय अम्बे गौरी ॥

केहरि वाहन राजत खड्ग कृपाण धारी। मैया खड्ग कृपाण धारी
सुर नर मुनि जन सेवत तिनके दुख हारी॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

कानन कुण्डल शोभित नासाग्रे मोती। मैया नासाग्रे मोती
कोटिक चन्द्र दिवाकर सम राजत ज्योति॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

शम्भु निशम्भु बिडारे महिषासुर घाती। मैया महिषासुर घाती
धूम्र विलोचन नैना निशदिन मदमाती॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

चण्ड मुण्ड शोणित बीज हरे। मैया शोणित बीज हरे
मधु कैटभ दोउ मारे सुर भयहीन करे॥….जय अम्बे गौरी ॥

ब्रह्माणी रुद्राणी तुम कमला रानी। मैया तुम कमला रानी
आगम निगम बखानी तुम शिव पटरानी॥…. जय अम्बे गौरी ॥

चौंसठ योगिन गावत नृत्य करत भैरों। मैया नृत्य करत भैरों
बाजत ताल मृदंग और बाजत डमरू॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

तुम हो जग की माता तुम ही हो भर्ता। मैया तुम ही हो भर्ता
भक्तन की दुख हर्ता सुख सम्पति कर्ता॥…. जय अम्बे गौरी ॥

भुजा चार अति शोभित वर मुद्रा धारी। मैया वर मुद्रा धारी
मन वाँछित फल पावत देवता नर नारी॥ ….जय अम्बे गौरी ॥

कंचन थाल विराजत अगर कपूर बाती। मैया अगर कपूर बाती
माल केतु में राजत कोटि रतन ज्योती॥…. बोलो जय अम्बे गौरी ॥

माँ अम्बे की आरती जो कोई नर गावे। मैया जो कोई नर गावे
कहत शिवानन्द स्वामी सुख सम्पति पावे॥…. जय अम्बे गौरी ॥
~~देवी वन्दना~~
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ॥

स्तुति गणपती जी की

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यत पूजनं हरे: । 
सर्वं सम्पूंर्णतामेति कृते नीराजने शिवे ॥
पूजन मन्त्रहीन और क्रियाहीन होने पर भी नीराजन (आरती) कर लेने से उसमें सारी पूर्णता आ जाती है। आरती में पहले मूलमन्त्र जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों की ध्वनि तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुद्ध पात्र में घृत से या कपूर से विषम संख्या की अनेक बत्तियां जलाकर आरती करनी चाहिए ।

स्तुति गणपती जी की :

गणपति की सेवा मंगल मेवा सेवा से सब विध्न टरें।
तीन लोक तैंतीस देवता द्वार खड़े सब अर्ज करे ॥1

ऋद्धि-सिद्धि दक्षिण वाम विरजे आनन्द सौं चंवर दुरें ।
धूप दीप और लिए आरती भक्त खड़े जयकार करें ॥2

गुड़ के मोदक भोग लगत है मूषक वाहन चढ़े सरें ।
सौम्य सेवा गणपति की विध्न भागजा दूर परें ॥3

भादों मास शुक्ल चतुर्थी दोपारा भर पूर परें ।
लियो जन्म गणपति प्रभु ने दुर्गा मन आनन्द भरें ॥4

श्री शंकर के आनन्द उपज्यो, नाम सुमरयां सब विध्न टरें ।
आन विधाता बैठे आसन इन्द्र अप्सरा नृत्य करें ॥5

देखि वेद ब्रह्माजी जाको विध्न विनाशन रूप अनूप करें।
पग खम्बा सा उदर पुष्ट है चन्द्रमा हास्य करें ।
दे श्राप चन्द्र्देव को कलाहीन तत्काल करें ॥6

चौदह लोक में फिरें गणपति तीन लोक में राज करें ।
उठ प्रभात जो आरती गावे ताके सिर यश छत्र फिरें ॥7

गणपति जी की पूजा पहले करनी काम सभी निर्विध्न करें ।
श्री गणपति जी की हाथ जोड़कर स्तुति करें ॥8

शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

Shiv Tandav Stotra (शिव ताण्डव स्तोत्र)


जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले 
गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं 
चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्‌ ॥१॥
जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं, वे शिवजी हमारा कल्यान करें ।

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी 
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके 
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं, उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि 
क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) केअ विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं, ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।

जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा 
कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे 
मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥
मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं।

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर 
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः 
श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं), जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा
निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं 
महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्व
लद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है ( यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।

नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर-
त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः 
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पनता प्रदान करें।

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा 
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं 
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो६ के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ ।

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी 
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं 
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुर-
द्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकम
स्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः 
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌ 
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः 
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥
कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं 
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
देवांगनाओं के सिर में गूँथे पुष्पों की मालाओं के झड़ते हुए सुगंधमय पराग से मनोहर, परम शोभा के धाम महादेवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानंदयुक्त हमारेमन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी 
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः 
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापों को भस्म करने में स्त्री स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली देवकन्याओं से शिव विवाह समय में गान की गई मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, सांसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पाएँ।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम 
स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं 
विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम ॥१६॥
इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं 
यः शम्भूपूजनपरम पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां 
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम्‌ ॥

रविवार, 5 जुलाई 2015

।। बिल्वाष्टकम् ।।



विल्व पत्र महादेव को अत्यन्त प्रिय है, विल्व पत्र उनको अर्पण किये बिना उनकी उपासना अधूरी है ।






त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रयायुधम ।
त्रिजन्मपापसहांरं मेकबिल्वं शिवार्पणम ॥1

त्रिशाखै बिल्वपत्रश्र्च ह्यच्छिद्र कोमलै: शुभै ।
शिवपूजां करिष्यामि ह्येक्बिल्वं शिवार्पणम ॥2

अखण्डबिल्वपत्रेण पूजिते नन्दिकेश्वरे ।
शुद्ध्यन्ति सर्वपापेभ्यो ह्येकबिल्वं शिवार्पणम ॥3

शालिग्रामशिलामेकां विप्राणां जातु अर्पयेत ।
सोमयज्ञ-महापुण्यमेकिबल्वं शिवार्पणम ॥4

दन्तिकोटि सहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
कोटिकन्या - महादानमेकबिल्वं शिवार्पणम ॥5

लक्ष्मया: स्तनत उत्पन्नं महादेवस्य च प्रियम ।
बिल्वंवृक्षं प्रयच्छामि ह्येकबिल्वं शिवार्पणम ॥6

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम ।
अधोरपापसंहार मेकबिल्वं शिवार्पणम ॥7

मूलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णुरूपिणे ।
अग्रत: शिवरूपाय ह्येकबिल्वं शिवार्पणम ॥8

बिल्वाष्टकमिदं पुण्यं य: पठेतच्छिवसंनिद्धधौ 
सर्वपाप विनिर्मुक्तः शिवलोकमवाप्नुयात्‌॥
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